|
प्रार्थनाएं
प्रार्थना और भगवान् को पुकारना
हमारा सारा जीवन भगवान् को निवेदित प्रार्थना हो ।
*
सर्वांगीण प्रार्थना : समस्त सत्ता भगवान् के प्रति की गयी एक ही प्रार्थना में एकाग्र ।
*
नींद में से बाहर निकलते हुए तुम्हें कुछ क्षणों के लिए चुपचाप रहना चाहिये और आनेवाले दिन का भगवान् के प्रति उत्सर्ग करना चाहिये । उन्हें हमेशा सभी परिस्थितियों में याद रखने के लिए प्रार्थना करनी चाहिये ।
सोने से पहले तुम्हें कुछ क्षणों के लिए एकाग्र होना चाहिये । बीते हुए दिन पर नजर डालो, याद करो कि कब-कब और कहां तुम भगवान् को भूल गये थे और प्रार्थना करो कि इस तरह फिर न भूलो । ३१ अगस्त, १९५३
*
हर रोज सवेरे उठने पर हम पूर्ण उत्सर्ग भरे दिन के लिए प्रार्थना करें । १९ जून, १९५४
*
हम अपने पूरे दिल से प्रार्थना करें कि भगवान् का कार्य, सम्पन्न हो ।
*
सभी सच्ची प्रार्थनाओं का उत्तर मिलता है लेकिन उसके भौतिक रूप २३० में चरितार्थ होने में समय लग सकता है । २८ जून, १९५४
*
सभी सच्ची प्रार्थनाएं स्वीकृत होती हैं, हर पुकार को उत्तर मिलता है । २१ जुलाई, १९५४
*
सच्ची पुकारें निश्चय ही सुनी जाती हैं और उनका उत्तर मिलता है ।
*
हमें सतत अभीप्सा की स्थिति में रहना चाहिये लेकिन जब हम अभीप्सा न कर सकें तो हम एक बालक की सरलता के साथ प्रार्थना करें । २५ जुलाई, १९५४
*
हम प्रार्थना करते हैं कि भगवान् हमें हमेशा अधिकाधिक सिखायें, अधिकाधिक प्रबुद्ध करें, हमारे अज्ञान को छिन्न-भिन्न करें, हमारे मनों को प्रकाशित करें । २ नवम्बर, १९५४
*
भागवत कृपा के प्रति तीव्र और सच्ची प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती । १९ दिसम्बर, १९५४
*
परम प्रभु भागवत ज्ञान और पूर्ण ऐक्य हैं । दिन के प्रत्येक क्षण हम उनका आहवान करें ताकि हम उनके सिवा और कुछ न हों ।२० दिसम्बर, १९५४ * २३१ जब हम अपनी निराशा में, भगवान् को पुकारते हैं तो वे हमेशा हमारी पुकार का उत्तर देते हैं । २१ दिसम्बर, १९५४
*
हम भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि वे हमारी कृतज्ञता की प्रदीप्त ज्वाला को एवं आनन्दमयी और पूरी तरह विश्वस्त निष्ठा को स्वीकार करें । २७ दिसम्बर, १९५४
*
एक पत्र में श्रीअरविन्द कहते हैं :
''उचित रूप से निवेदित की गयी हर प्रार्थना हमें भगवान् के अधिक नजदीक लाती है ओर उनके साथ ठीक-ठीक सम्बन्ध स्थापित करती है । ''
इस पत्र में ''उचित रूप से निवेदित की गयी'' का मतलब क्या है क्या आप स्पष्ट करेगी ?
विनय और सचाई के साथ की गयी ।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि सौदेबाजी का सारा भाव कपट है जो प्रार्थना का सारा मूल्य हर लेता है । ८ मई, १९६८
*
जो सचाई के साथ भगवान् को पुकारते हैं उनके लिए कुछ भी कठिन नहीं है । २८ जनवरी, १९७३
*
प्रार्थनाएं
कल मैंने तुमसे राधा के नृत्य के बारे में जो कहा था उसे पूरा करने २३२ के लिए मैंने निम्नलिखित टिप्पणी लिखी है जो इस बात का संकेत है कि अन्त में जब राधा, कृष्ण के सामने खड़ी हो तो उसके अन्दर क्या विचार और भाव होने चाहियें :
'' मेरे मन का प्रत्येक विचार मेरे हृदय का हर एक भाव, मेरी सत्ता की हर एक गति, हर एक भावना और हर एक संवेदन, मेरे शरीर का हर एक कोषाणु, मेरे रक्त की हर बूंद, सब, सब कुछ तुम्हारा है पूरी तरह तुम्हारा है, बिना कुछ बचाये तुम्हारा है । तुम मेरे जीवन का निश्चय कर सकते हो या मेरे मरण का, मेरे सुख का या मेरे दुःख का, मेरी खुशी का या मेरे कष्ट का; तुम मेरे साथ जो भी करो, मेरे लिए तुम्हारे पास से जो भी आये वह मुझे भागवत आनन्द की ओर ले जायेगा ।'' १२ जनवरी, १९३२
*
राधा की प्रार्थना
जीवन-मरण कि हर्ष-शोक भेजे तू या सुख-दुःख क्षण, २३३
१३ जनवरी, १९३२
*
मेरे प्रभो, मुझे पूरी तरह अपना बना ले ।
*
मेरे प्रभो, मैं पूरी तरह और सचाई के साथ तेरी होऊं ।
*
हे प्रभो, मुझे पूर्ण सचाई प्रदान कर । हे प्रभो, मैं हमेशा के लिए पूरी तरह तेरी होऊं ।
*
परम प्रभु को सम्बोधित अभीप्सा : मेरे अन्दर सब कुछ सदा तेरी सेवा में रहे ।
*
*
मैं सदा तेरे दिव्य पथ-प्रदर्शन का अनुसरण करूं । वर दे कि मैं अपनी सच्ची नियति से अवगत रहूं । १ जनवरी, १९३४
*
हे प्रभो, तेरी मधुरता मेरी अन्तरात्मा में प्रवेश कर गयी है और तूने २३४ मेरी सत्ता को आनन्द से भर दिया है । १४ अप्रैल, १९३५
*
मेरा हृदय शान्त है, मेरा मन अधीरता से मुक्त है और एक बालक के मुस्कराते हुए विश्वास के साथ सभी चीजों में मैं तेरी इच्छा पर निर्भर हूं ।
*
मेरे प्रभो, प्रतिदिन, सभी परिस्थितियों में मैं हृदय की पूरी सचाई के साथ जपूं-तेरी इच्छा पूरी हो, मेरी नहीं । ५ नवम्बर, १९४१
*
प्रभो--अपनी पूरी अन्तरात्मा के साथ मैं वही करना चाहती हूं जो करने का तू आदेश दे । ५ नवम्बर, १९४३
*
हे प्रभो, मुझे समस्त दर्प से मुक्त कर; मुझे विनीत और सच्चा बना । ५ नवम्बर, १९४४
*
हे प्रभो, बड़ी विनय के साथ मैं प्रार्थना करती हूं कि मैं अपने प्रयास के शिखर पर रहूं, कि मेरे अन्दर कोई भी चीज सचेतन या अचेतन रूप से, तेरे पवित्र उद्देश्य की सेवा करने में कोताही करके तेरे साथ विश्वासघात न करे ।
गम्भीर भक्ति के साथ मैं तुझे प्रणाम करती हूं । * २३५ एक दैनिक प्रार्थना
हे प्रभो, मुझे भय और चिन्ता से मुक्त कर ताकि मैं अपनी अधिक- से- अधिक योग्यता के साथ तेरी सेवा कर सकूं । दिसम्बर, १९४८
*
प्रभो, मुझे सम्पूर्ण और समग्र सचाई का बल प्रदान कर ताकि मैं तेरी सिद्धि के योग्य बन सकूं । १५ अगस्त, १९५०
*
ओ मेरे हृदय, भागवत विजय के योग्य महान् बन ।
*
मेरा हृदय तेरी दिव्य विजय के योग्य विशाल होने की अभीप्सा करता है ।
*
मैं समस्त अहंकारमयी दुर्बलताओं और समस्त अचेतन कपट कुटिलताओं से मुक्त किये जाने के लिए अभीप्सा करती हूं । ३१ दिसम्बर, १९५०
*
प्रभो, वर दे कि चीजों के बारे में मेरी दृष्टि स्पष्ट और तटस्थ हो और मेरे कार्य उसके द्वारा पूर्णतया रूपान्तरित हों ।
*
प्रभो, वर दे कि एक बार की गयी और पहचानी गयी मूर्खता कभी दुबारा न होने पाये ।
* २३६ मेरे प्रभो, तू मुझे अपने अन्दर वह शान्त भरोसा प्रदान कर जो समस्त कठिनाइयों पर विजय पाता है ।
*
मुझे निश्चल विश्वास, शान्त बल, प्रगाढ़ श्रद्धा और भक्ति प्रदान कर ।
*
प्रभो, वर दे कि मैं पूरी तरह, सदा के लिए तेरे प्रति निष्ठावान् रहूं ।
*
प्रभो, मेरे ऊपर यह कृपा कर कि मैं तुझे कभी न भूल पाऊं । दिसम्बर, १९५८
*
मेरे प्रभो, चेतना को स्पष्ट ओर यथार्थ बना, वाणी को पूरी तरह सच्चा बना, समर्पण पूर्ण हो, स्थिरता सम्पूर्ण और सारी सत्ता को प्रकाश और प्रेम के सागर में रूपान्तरित कर दे ।
* . मुझे पूर्णतया पारदर्शक बना ताकि मेरी चेतना तेरी चेतना के साथ एक हो सके ।
मैं इस धरती की सारी समृद्धि को तेरे चरणों में चढ़ाने की अभीप्सा करती हूं ।
*
हे प्रभो, मैं तुझसे प्रार्थना करती हूं मेरे चरणों को रास्ता दिखा, मेरे मन को प्रबुद्ध कर ताकि सभी चीजों में हर क्षण मैं वही करूं जो तू मुझसे करवाना चाहता है । १६ जनवरी, १९६२ * २३७ प्रभो, मुझे पूर्ण सचाई प्रदान कर, वह सचाई जो मुझे सीधा तेरे पास ले जाये । अगस्त, १९६२
*
प्रभो, मुझे अपना आशीर्वाद दे ताकि मैं अधिकाधिक सच्ची बन सकूं । १८ जुलाई, १९६७
*
प्रभो, मुझे वास्तविक सुख दे, वह सुख जो केवल तेरे ऊपर निर्भर करता हे ।
* .
१९७१ के लिए प्रार्थना
हे प्रभो, वर दे कि मैं वही बनूं जो तू मुझे बनाना चाहता है । ५ मार्च, १९७१
*
मैं तेरी हूं, मैं तुझे जानना चाहती हूं ताकि जो कुछ मैं करूं वह सब केवल वही हो जो तू मुझसे करवाना चाहता है । २४ जून, १९७२
*
दया के स्वामी, मुझे अपनी कृपा के योग्य बना । २७ अक्तूबर, १९७२ * २३८ सवेरे और शाम की प्रार्थना
प्रभो, मैं तुम्हारा और तुम्हारे योग्य बनना चाहता हूं, मुझे अपना आदर्श बालक बना ।
*
सवेरे
हे मेरे प्रभो, मेरी मधुर मां,
वर दो कि मैं तुम्हारा बनूं, पूरी तरह तुम्हारा, पूर्ण रूप से तुम्हारा । तुम्हारी शक्ति, तुम्हारा प्रकाश और तुम्हारा प्रेम समस्त अशुभ से मेरी रक्षा करेंगे ।
दोपहर
हे मेरे प्रभो, मधुर मां
मैं तुम्हारा हूं और प्रार्थना करता हूं कि अधिकाधिक पूर्णता के साथ तुम्हारा बनूं ।
रात
हे मेरे प्रभो, मधुर मां,
तुम्हारी शक्ति मेरे साथ है, तुम्हारा प्रकाश और तुम्हारा प्रेम और स्वयं तुम सभी कठिनाइयों से मेरी रक्षा करोगे ।
*
मेरे मधुर प्रभो, मेरी छोटी-सी मां,
मुझे सच्चा प्रेम प्रदान करो, ऐसा प्रेम जो अपने- आपको भूल जाता है ।
* २३९ मेरे प्रभो, मेरी मां,
तुम हमेशा अपने आशीर्वाद और अपनी कृपा के साथ मेरे संग रहते हो ।
तुम्हारी उपस्थिति ही परम सुरक्षा है ।
*
याद रखो कि मां हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।
उन्हें इस तरह सम्बोधित करो और वे तुम्हें सब कठिनाइयों में से बाहर निकाल लेंगी :
'' हे मां, तू मेरी बुद्धि का प्रकाश, मेरी अन्तरात्मा की शुद्धि, मेरे प्राण का स्थिर-शान्त बल और मेरे शरीर की सहनशक्ति है । मैं केवल तेरे ऊपर निर्भर हूं और पूरी तरह तेरा होना चाहता हूं । मार्ग की सभी कठिनाइयों को पार कर सकूं । ''
*
⁂
मेरे प्रभो, तूने आज रात को मुझे यह परम ज्ञान दिया है ।
हम जिन्दा हैं क्योंकि यही तेरी इच्छा है । हम तभी मरेंगे जब यह तेरी इच्छा होगी । २ मार्च, १९३४
*
अचल शान्ति का आनन्द लेने का एकमात्र उपाय है सभी परिस्थितियों में सदा वही चाहना जो तू चाहता है । * २४० प्रभो, मुझे सच्चा सुख दे, वह सुख जो केवल तेरे ऊपर निर्भर रहने से आता है । १९४० .
*
प्रभो, हमें वह अदम्य साहस दे जो तुझ पर पूर्ण विश्वास होने से आता है । ४ अप्रैल, १९४२
*
प्रभो, हमें बल दे कि हम पूर्ण रूप से उस आदर्श को जी सकें जिसकी हम घोषणा करते हैं ।
*
हमें उज्ज्वल भविष्य में श्रद्धा और उसे चरितार्थ करने की क्षमता प्रदान कर ।
*
प्रभा, वर दे कि हमारे अन्दर चेतना और शान्ति बढ़े, ताकि हम तेरे एकमेव दिव्य विधान के अधिकाधिक निष्ठावान् माध्यम बन सकें । ३१ दिसम्बर, १९५१
*
प्रभो, हमारे अन्दर कोई भी चीज तेरे काम में बाधा न दे । फरवरी, १९५२
*
प्रभो, हमें मिथ्यात्व से मुक्त कर, हम तेरे सत्य में तेरी विजय के योग्य और पवित्र बनकर उभरें । * २४१ हे अद्भुत कृपा, वर दे कि हमारी अभीप्सा हमेशा अधिकाधिक तीव्र, हमारी श्रद्धा हमेशा अधिकाधिक जीवंत और हमारा विश्वास हमेशा अधिकाधिक निरपेक्ष हो ।
तू सर्व-विजयी है ! १९५६
*
परम प्रभो, हमें नीरव रहना सिखा ताकि नीरवता में हम तेरी शक्ति ग्रहण कर सकें और तेरी इच्छा को समझ सकें । ११ फरवरी, १९७२
*
हमें सत्य की ओर जाने के अपने प्रयास में वास्तविक रूप से सच्चा होना सिखला ।
*
प्रभो, परम सत्य,
हम तुझे जानने और तेरी सेवा करने के लिए अभीप्सा करते हैं । हमारी सहायता कर कि हम तेरे योग्य बालक बन सकें । और इसके लिए तू अपने सतत उपहारों के बारे में हमें अवगत करा ताकि कृतज्ञता हमारे हृदयों को भर सके और हमारे जीवन पर राज कर सके ।
*
प्रभो, तेरा प्रेम इतना महान्, इतना उदात्त और इतना पवित्र है कि वह हमारी समझ के परे है । वह अमित और अनन्त है; हमें उसे घुटनों के बल झुककर ग्रहण करना चाहिये । फिर भी तूने उसे इतना मधुर बना दिया है कि हममें से सबसे निर्बल भी, एक बच्चा भी तेरे पास आ सकता है । * २४२ स्थिर शान्त और विमल भक्ति के साथ हम तुझे नमस्कार करते हैं और तुझे अपनी सत्ता की एकमात्र वास्तविकता के रूप में स्वीकार करते है ।
*
प्रभो, सुन्दरता और सामञ्जस्य के देव,
वर दे कि हम संसार में तेरी परम सुन्दरता को अभिव्यक्त करने योग्य यन्त्र बन सकें ।
यही हमारी प्रार्थना और हमारी अभीप्सा है ।
*
हे परम सद्वस्य, वर दे कि हम सम्पूर्ण रूप से वह अद्भुत रहस्य जी सकें जिसे अब हम पर प्रकट किया गया है ।
*
मधुर मां, वर दे कि हम सरल रूप से अब और हमेशा के लिए तेरे नन्हें बालक बने रहें ।
⁂
यहां हर एक, समाधान करने के लिए किसी-न-किसी असम्भवता का प्रतिनिधित्व करता है । लेकिन हे प्रभो, क्योंकि तेरी दिव्य शक्ति के लिए सब कुछ सम्भव है तो क्या ब्योरे में और समग्र में इन सब असम्भावनाओं को दिव्य उपलब्धियों में रूपान्तरित कर देना ही तेरा कार्य न होगा ?
*
हे मेरे मधुर स्वामी, तू ही विजेता है और तू ही विजय, तू ही जय है और तू ही जयी ! २७ नवम्बर, १९५१ * २४३ तेरा हृदय मेरे लिये परम आश्रय है जहां हर चिन्ता शान्त हो जाती है । कृपा कर कि यह हृदय पूरा खुला रहे ताकि वे सब जो यातना से पीड़ित हैं, उसमें परम शरण पा सकें । ४ दिसम्बर, १९५१
*
समस्त हिंसा को शान्त कर दे, तेरा प्रेम ही राज्य करे । १३ अप्रैल, १९५४
*
हे प्रभो, तेरी इच्छा पूर्ण हो । तू ही सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण सुरक्षा है ।
*
हे मेरे प्रभो तेरी सहायता और कृपा हो तो फिर डर किस बात का ! तू ही परम सुरक्षा हे जो सभी शत्रुओं को हरा देती हे ।
* हे मेरे प्रभो, तेरी सुरक्षा सर्वसमर्थ है । वह हर शत्रु को हरा देती है ।
*
सभी परिस्थितियों में तेरी विजय को देखना निश्चय ही उसके आने में सहायता करने का सबसे अच्छा उपाय है ।
*
एकमेव परम प्रभु के प्रति
तेरे से दूर होने के अतिरिक्त कोई पाप नहीं, कोई ओर दोष नहीं ।
*
प्रभो, तेरे बिना जीवन भयंकर है । तेरे प्रकाश, तेरी चेतना, तेरे सोन्दर्य २४४ और तेरी शक्ति के बिना समस्त अस्तित्व एक मनहूस और वाहियात प्रहसन है ।
*
हे प्रभो, जो कुछ है और जो कुछ होगा उसकी गहराइयों में तेरी दिव्य, अपरिवर्तनशील मुस्कान है ।
⁂
वर्षा के लिए प्रार्थना
*
सूर्य से प्रार्थना
*
२४५
हमें तंग करना एकदम बन्द कर दो ।
*
(माताजी की ८ अप्रैल १९१४ की प्रार्थना के बारे में- जो 'प्रार्थना और ध्यान' में छपी है)
रकई (फ्रेंच शब्द) -सब ओर से इकट्ठा करना और धार्मिक भाव से एकाग्र होना । इस प्रार्थना में पहले विचार पूरी शान्ति में है और हृदय इकट्ठा होकर आराधना में केन्द्रित है, अगली बार मस्तिष्क आराधना से भरा है और हृदय नीरव और शान्तिपूर्ण है ।
*
(३ सितम्बर १९१९ की प्रार्थना के बारे में)
इस प्रार्थना में विश्व जननी भौतिक, पार्थिव प्रकृति के रूप में बोल रही हैं । भोजन यह संसार है जिसे उन्होंने क्रमविकास की प्रक्रिया द्वारा निश्चेतना में से निकाला है । वे मनुष्य को इस क्रमविकास का शिखर, इस संसार का शासक बनाना चाहती थीं । वे कल्पों से इस आशा से प्रतीक्षा करती आयी हैं कि मनुष्य इस भूमिका के योग्य बन जायेगा और संसार को भागवत सिद्धि प्रदान करेगा । लेकिन मनुष्य इतना अयोग्य था कि वह अपने- आपको इस कार्य के लिए तैयार करने की शर्तें स्वीकार करने के लिए भी इच्छुक न हुआ और अन्तत: भौतिक प्रकृति को यह विश्वास हो गया कि वह गलत मार्ग पर थी । तब उसने भगवान् की ओर मुड़कर उनसे निवेदन किया कि वे इस जगत् पर कब्जा कर लें, जिसे भागवत उपलब्धि के लिए बनाया गया था ।
*
इस चाबी के साथ बाकी सब अपने- आपमें स्पष्ट है । * २४६ (प्रार्थना और ध्यान में छपी २३ अक्तूबर १९३७ की प्रार्थना के बारे में)
संक्षेप में मैं कह सकती हूं कि ''परम सिद्धि'' का अर्थ व्यक्ति के लिए है भगवान् के साथ तादात्म्य और धरती पर समष्टि के लिए उसका अर्थ है अतिमानस का, नयी सृष्टि का आगमन ।
इसे एक रूढ़ि के रूप में न लो, केवल एक व्याख्या मानो, और ''सिद्ध करने वाली'' है सिद्धि की परम शक्ति, जो कर्ता और कर्म दोनों है । २४७
|